ज़मीं वालों की बस्ती में सुकूनत चाहती है
मिरी फ़ितरत सितारों से इजाज़त चाहती है
अजब ठहराव पैदा हो रहा है रोज़ ओ शब में
मिरी वहशत कोई ताज़ा अज़िय्यत चाहती है
मैं तुझ को लिखते लिखते थक चुका हूँ मेरी दुनिया
मिरी तहरीर अब थोड़ी सी फ़ुर्सत चाहती है
उधर मुँह-ज़ोर मौजें दनदनाती फिर रही हैं
मगर इक नाव दरिया से बग़ावत चाहती है
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ग़ज़ल
ज़मीं वालों की बस्ती में सुकूनत चाहती है
अहमद अशफ़ाक़