ज़मीं थी सख़्त मुझे कोई नक़्श-ए-पा न मिला
तिरी गली से जो निकला तो रास्ता न मिला
दुआ थी चीख़ थी या एहतिजाज था क्या था
हिले थे होंट मगर हर्फ़-ए-मुद्दआ' न मिला
बदन की क़ैद से छूटा तो लोग पहचाने
तमाम-उम्र किसी को मिरा पता न मिला
मैं चाहता था कि तेवर भी देख ले मेरे
ग़नीम जब भी मिला मुझ से ग़ाएबाना मिला
नफ़स नफ़स कोई मुझ को पुकारता क्यूँ है
नज़र को जब कि बसारत का ज़ाइक़ा न मिला
ये बज़्म-ए-शेर-ओ-अदब है कि कूचा-ए-बद-नाम
यहाँ तो जो भी मिला है मुनाफ़िक़ाना मिला
मिले हैं यूँ तो बहुत तिश्नगी के दश्त 'ज़िया'
कोई भी दश्त मगर मिस्ल-ए-कर्बला न मिला

ग़ज़ल
ज़मीं थी सख़्त मुझे कोई नक़्श-ए-पा न मिला
ज़िया फ़ारूक़ी