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ज़मीं तश्कील दे लेते फ़लक ता'मीर कर लेते | शाही शायरी
zamin tashkil de lete falak tamir kar lete

ग़ज़ल

ज़मीं तश्कील दे लेते फ़लक ता'मीर कर लेते

शाहिद लतीफ़

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ज़मीं तश्कील दे लेते फ़लक ता'मीर कर लेते
हम अपने आप में होते तो सब तक़दीर कर लेते

इन्ही राहों पे चलने की कोई तदबीर कर लेते
अगरचे ख़ाक उड़ती, ख़ाक को इक्सीर कर लेते

नहीं था सर में सौदा बाम-ओ-दर का इस क़दर वर्ना
ज़माना देखता क्या क्या न हम ता'मीर कर लेते

ये मोहलत भी बड़ी शय थी हमें ऐ काश मिल जाती
किसी दिन बैठते कार-ए-जहाँ तहरीर कर लेते

ख़लिश बाक़ी न होती तो भला क्या लुत्फ़ रह जाता
तुझे तस्ख़ीर करना चाहते तस्ख़ीर कर लेते

नहीं गुफ़्तार की लज़्ज़त ये जज़्बे की करामत है
अगर जज़्बा नहीं होता तो क्या तक़रीर कर लेते

मोहब्बत में जुनूँ की बरकतें शामिल जो हो जातीं
अधूरे ख़्वाब थे पूरी मगर ताबीर कर लेते