ज़मीं सरकती है फिर साएबान टूटता है
और उस के बा'द सदा आसमान टूटता है
मैं अपने-आप में तक़्सीम होने लगता हूँ
जो एक पल को कभी तेरा ध्यान टूटता है
कोई परिंदा सा पर खोलता है उड़ने को
फिर इक छनाके से ये ख़ाक-दान टूटता है
जिसे भी अपनी सफ़ाई में पेश करता हूँ
वही गवाह वही मेहरबान टूटता है
न हम में हौसला-ए-ख़ुद-कुशी कि मर जाएँ
न हम से क़ुफ़्ल-ए-दर-ए-पासबान टूटता है
ज़कात-ए-इश्क़ अगर बाँटने पे आ जाऊँ
तो इक हुजूम-ए-तलब मुझ पे आन टूटता है
जो आँधियाँ सर-ए-सहरा-ए-हिज्र उठती हैं
उन आँधियों में 'रज़ा' नख़्ल-ए-जान टूटता है
ग़ज़ल
ज़मीं सरकती है फिर साएबान टूटता है
हसन अब्बास रज़ा