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ज़मीं पे रहते हुए कहकशाँ से मिलते हैं | शाही शायरी
zamin pe rahte hue kahkashan se milte hain

ग़ज़ल

ज़मीं पे रहते हुए कहकशाँ से मिलते हैं

सिरज़ अालम ज़ख़मी

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ज़मीं पे रहते हुए कहकशाँ से मिलते हैं
हमारे रंग भी अब आसमाँ से मिलते हैं

हमारे हाल की बोसीदगी पे मत जाओ
ख़ज़ाने अब भी पुराने मकाँ से मिलते हैं

तिरी क़सम का भी अब कैसे ए'तिबार करें
तिरे यक़ीं तो हमारे गुमाँ से मिलते हैं

वफ़ा ख़ुलूस मोहब्बत हमारा हिस्सा है
हर एक शख़्स को ये सब कहाँ से मिलते हैं

गले न हम को लगाएँ कि आप जल जाएँ
हमारे ज़ख़्म भी बर्क़-ए-तपाँ से मिलते हैं