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ज़मीं पर शोर-ए-महशर रोज़ ओ शब होता ही रहता है | शाही शायरी
zamin par shor-e-mahshar roz o shab hota hi rahta hai

ग़ज़ल

ज़मीं पर शोर-ए-महशर रोज़ ओ शब होता ही रहता है

इरफ़ान सिद्दीक़ी

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ज़मीं पर शोर-ए-महशर रोज़ ओ शब होता ही रहता है
हम अपने गीत गाएँ ये तो सब होता ही रहता है

ये हम ने भी सुना है आलम-ए-असबाब है दुनिया
यहाँ फिर भी बहुत कुछ बे-सबब होता ही रहता है

तिरी ख़ातिर कई सच्चाइयों से कट गए रिश्ते
मोहब्बत में तो ये तर्क-ए-नसब होता ही रहता है

मुसाफ़िर रात को इस दश्त में भी रुक ही जाते हैं
हमारे दिल में भी जश्न-ए-तरब होता ही रहता है

कोई शय तश्त में हम सर से कम क़ीमत नहीं रखते
सो अक्सर हम से नज़राना तलब होता ही रहता है