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ज़मीं पर रौशनी ही रौशनी है | शाही शायरी
zamin par raushni hi raushni hai

ग़ज़ल

ज़मीं पर रौशनी ही रौशनी है

रईस अमरोहवी

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ज़मीं पर रौशनी ही रौशनी है
ख़ला में इक किरन गुम हो गई है

मैं तन्हा जा रहा हूँ सू-ए-मंज़िल
ये परछाईं कहाँ से आ रही है

ये शाम और रौशनी की ये क़तारें
उदासी और गहरी हो गई है

उरूज-ए-माह है और मक़बरों पर
अबद की चाँदनी चटकी हुई है

उभार ऐ मौज-ए-तूफ़ाँ-ख़ेज़ मुझ को
ये कश्ती रेत में डूबी हुई है

हवा से है कली जुम्बाँ सर-ए-शाख़
ये किन हाथों में नेज़े की अनी है

गिरा है शाख़-ए-गुल से एक पता
किसी ने क्या मुझे आवाज़ दी है