ज़मीं की हद अगर कोई नहीं है
तो फिर मेरा भी घर कोई नहीं है
क़फ़स में बंद है पर्वाज़ मेरी
उमीद-ए-बाल-ओ-पर कोई नहीं है
हुनर उन को सिखाता फिर रहा हूँ
मगर ख़ुद में हुनर कोई नहीं है
ख़बर अख़बार में आए न आए
ख़बर से बे-ख़बर कोई नहीं है
यहाँ तो बस पड़ाव है हमारा
हमारा अपना घर कोई नहीं है
ये शहर-ए-आरज़ू है 'ग़ौस' ऐसा
जहाँ हद्द-ए-नज़र कोई नहीं है
ग़ज़ल
ज़मीं की हद अगर कोई नहीं है
गाैस मथरावी