ज़मीं के हाथ यूँ अपना शिकंजा कस रहे थे
सुतूँ सारे महल के रफ़्ता रफ़्ता धँस रहे थे
उमीदें लम्हा लम्हा घट के मरती जा रही थीं
अजब आसेब से आ कर दिलों में बस रहे थे
शजर पे ज़हर ने अब रंग दिखलाया है अपना
रुतों के साँप यूँ तो मुद्दतों से डस रहे थे
मिरा सूरज मिरी आँखों के आगे बुझ रहा था
मिरे साए मिरी बे-चारगी पे हँस रहे थे
पड़े हैं वक़्त की चोटों से अब मिस्मार हो कर
वही पत्थर जो अपने दौर में पारस रहे थे
उजाड़ा किस तरह आँधी ने बेदर्दी से देखो
नगर ख़्वाबों के कितनी हसरतों से बस रहे थे
उड़ानों ने किया था इस क़दर मायूस उन को
थके-हारे परिंदे जाल में ख़ुद फँस रहे थे
ग़ज़ल
ज़मीं के हाथ यूँ अपना शिकंजा कस रहे थे
मनीश शुक्ला

