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ज़मीन-ए-फ़िक्र में लफ़्ज़ों के जंगल छोड़ जाना | शाही शायरी
zamin-e-fikr mein lafzon ke jangal chhoD jaana

ग़ज़ल

ज़मीन-ए-फ़िक्र में लफ़्ज़ों के जंगल छोड़ जाना

मुबारक अंसारी

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ज़मीन-ए-फ़िक्र में लफ़्ज़ों के जंगल छोड़ जाना
ग़ज़ल में अपनी कोई शे'र मोहमल छोड़ जाना

हैं ना-मानूस अभी कर्ब-ए-तमाशा से निगाहें
दयार-ए-जाँ में आशोब-ए-मुसलसल छोड़ जाना

नज़र आएँ कभी तहरीर में बे-रब्त फ़िक़रे
कभी पेशानी-ए-तन्क़ीद पे बल छोड़ जाना

बड़ी मुश्किल से होता है कोई दरवेश-ख़सलत
मियाँ आसाँ नहीं कमख़्वाब-ओ-मख़मल छोड़ जाना

कि रास आता नहीं आँखों को अब शो'लों का मौसम
हवाओं इस तरफ़ भी ला के बादल छोड़ जाना

'मुबारक' बस यही इक आख़िरी ख़्वाहिश है अपनी
जो मुझ को क़त्ल करना हो तो मक़्तल छोड़ जाना