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ज़मीं अपने लहू से आश्ना होने ही वाली है | शाही शायरी
zamin apne lahu se aashna hone hi wali hai

ग़ज़ल

ज़मीं अपने लहू से आश्ना होने ही वाली है

शहज़ाद अहमद

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ज़मीं अपने लहू से आश्ना होने ही वाली है
बहुत कुछ हो चुका अब इंतिहा होने ही वाली है

सवा नेज़े पे सूरज आ गया अब देखिए क्या हो
क़यामत एक दो पल में बपा होने ही वाली है

मिरी आँखों तलक शोला लहू का आन पहुँचा है
ये तल्ख़ी अब ज़बाँ का ज़ाइक़ा होने ही वाली है

बहुत दिन जागते ख़्वाबों को आँखों से लगाया है
ये क़ुर्बत कुछ दिनों तक फ़ासला होने ही वाली है

वही गंदुम का दाना है वही हैं इस पे ताज़ीरें
मैं डरता हूँ कि फिर मुझ से ख़ता होने ही वाली है

यहाँ से रास्ता कोई किसी जानिब नहीं जाता
यहीं से इक सफ़र की इब्तिदा होने ही वाली है

खुले थे मुद्दतों से बे-सबब आँखों के दरवाज़े
ये बस्ती आज कल में बे-सदा होने ही वाली है

मिरे घर तक भी आ पहुँचा है आख़िर शोर गलियों का
ये तन्हाई मिरे दिल से जुदा होने ही वाली है

गए-गुज़रे दिनों की धूल अब आँखों से धो डालो
कोई सूरत कहीं से रूनुमा होने ही वाली है

सितारे ख़ाक-ए-पाए-ए-आदमियत बनने वाले हैं
ये मिट्टी अब मिरे सर की रिदा होने ही वाली है

बदलने के लिए बेताब है 'शहज़ाद' ये दुनिया
रवा जो चीज़ था अब ना-रवा होने ही वाली है