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ज़मानों के ख़राबों में उतर कर देख लेता हूँ | शाही शायरी
zamanon ke KHarabon mein utar kar dekh leta hun

ग़ज़ल

ज़मानों के ख़राबों में उतर कर देख लेता हूँ

साक़ी फ़ारुक़ी

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ज़मानों के ख़राबों में उतर कर देख लेता हूँ
पुराने जंगलों में भी समुंदर देख लेता हूँ

जो तूफ़ानों के डर से पानियों में सर छुपाती हैं
मैं ऐसी सीपियों में कोई गौहर देख लेता हूँ

हमेशा ख़ौफ़ के नर्ग़े में रहता हूँ मगर फिर भी
अबाबीलों की मिंक़ारों में लश्कर देख लेता हूँ

वो देहातों के रस्ते हों कि हों फ़ुट-पाथ शहरों के
जहाँ पर रात पड़ जाए वहाँ घर देख लेता हूँ

बहुत सी ख़्वाहिशों को मैं पनपने ही नहीं देता
मगर उन की निगाहों में सोयम्बर देख लेता हूँ