ज़माने को लहू पीने की लत है
मगर फिर भी यहाँ सब ख़ैरियत है
हमारी शख़्सियत क्या शख़्सियत है
हर इक तेवर दिखावे की परत है
हमारा घर बहुत छोटा है लेकिन
हमारा घर हमारी सल्तनत है
ये क़तरा ख़ून का दरिया बनेगा
अभी इंसान ज़ेर-ए-तर्बियत है
तआ'रुफ़ हम से अपनी ज़ात का भी
अभी अहल-ए-करम की मा'रिफ़त है
लिखे हैं गीत बरसातों के जिस पर
हमारे घर पे उस काग़ज़ की छत है
मिरी आँखों में तल्ख़ी उस जहाँ की
तिरे चेहरे पे ख़ौफ़-ए-आक़िबत है
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ग़ज़ल
ज़माने को लहू पीने की लत है
कँवल ज़ियाई