ज़माने के दरबार में दस्त-बस्ता हुआ है
ये दिल उस पे माइल मगर रफ़्ता रफ़्ता हुआ है
अचानक ही हथियार वाले नहीं सख़्त-जाँ ने
जिगर वक़्त के साथ ख़स्ता शिकस्ता हुआ है
कहीं अंदर अंदर सुलगती थी चिंगारी कोई
मगर हादसा आख़िर-ए-कार शाम-ए-गुज़िश्ता हुआ है
कई बार जल्लाद ने खींच देखा है उस को
मगर मुंजमिद दार का सर्द तख़्ता हुआ है
ख़बर-दार रहने लगा शहरयार उस से 'यासिर'
क़लम मेरे हाथों में ख़ंजर का दस्ता हुआ है

ग़ज़ल
ज़माने के दरबार में दस्त-बस्ता हुआ है
ख़ालिद इक़बाल यासिर