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ज़माने हो गए तेरे करम की आस लगी | शाही शायरी
zamane ho gae tere karam ki aas lagi

ग़ज़ल

ज़माने हो गए तेरे करम की आस लगी

अजीत सिंह हसरत

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ज़माने हो गए तेरे करम की आस लगी
क़रीब-ए-मय-कदा सहरा सी मुझ को प्यास लगी

लहू रुलाते हैं मुझ को सुहावने मंज़र
चटकती चाँदनी तेरे बिना उदास लगी

न उस में मय है न पानी तो प्यास कैसे बुझे
ये ज़िंदगी मुझे टूटा हुआ गिलास लगी

ये गर्म गर्म से आँसू बता रहे हैं यही
ज़रूर आग कहीं दिल के आस-पास लगी

यहाँ तो कोई भी मालिक नहीं मिरे साहब
तमाम ख़ल्क़ मुझे ख़्वाहिशों की दास लगी

जहेज़ नाम ही से रंग उड़ गया उस का
ग़रीब बाप की बेटी जहाँ-शनास लगी

कड़कती धूप में चल तो पड़ी दुल्हन 'हसरत'
क़दम क़दम पे उसे रास्ते में प्यास लगी