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ज़माने-भर से जुदा और बा-कमाल कोई | शाही शायरी
zamane-bhar se juda aur ba-kamal koi

ग़ज़ल

ज़माने-भर से जुदा और बा-कमाल कोई

अम्बर खरबंदा

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ज़माने-भर से जुदा और बा-कमाल कोई
मिरे ख़यालों में रहता है बे-मिसाल कोई

न जाने कितनी ही रातों का जागना ठहरा
मिरे वजूद से उलझा है जब ख़याल कोई

तुम्हीं बताओ कि फिर गुफ़्तुगू से क्या हासिल
जवाब होने की ज़िद कर ले जब सवाल कोई

करम के बख़्श दिया तू ने मुश्किलों का पहाड़
अब इस पहाड़ से रस्ता मगर निकाल कोई

गुज़ारने थे यही चार दिन गुज़ार दिए
न कोई रंज न शिकवा न अब मलाल कोई

हमारे साथ दुआएँ बहुत थीं अपनों की
कभी सुकून से गुज़रा मगर न साल कोई