ज़माने भर की ज़िल्लत सामने थी
हुनर-मंदी की क़ीमत सामने थी
शिकस्त-ए-ख़्वाब का आलम न पूछो
बड़ी कड़वी हक़ीक़त सामने थी
निहाँ सारा ही चेहरों से अयाँ था
दिलों की सब कुदूरत सामने थी
ग़ज़ल
ज़माने भर की ज़िल्लत सामने थी
मोहसिन ज़ैदी
ग़ज़ल
मोहसिन ज़ैदी
ज़माने भर की ज़िल्लत सामने थी
हुनर-मंदी की क़ीमत सामने थी
शिकस्त-ए-ख़्वाब का आलम न पूछो
बड़ी कड़वी हक़ीक़त सामने थी
निहाँ सारा ही चेहरों से अयाँ था
दिलों की सब कुदूरत सामने थी