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ज़माने भर की ज़िल्लत सामने थी | शाही शायरी
zamane bhar ki zillat samne thi

ग़ज़ल

ज़माने भर की ज़िल्लत सामने थी

मोहसिन ज़ैदी

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ज़माने भर की ज़िल्लत सामने थी
हुनर-मंदी की क़ीमत सामने थी

शिकस्त-ए-ख़्वाब का आलम न पूछो
बड़ी कड़वी हक़ीक़त सामने थी

निहाँ सारा ही चेहरों से अयाँ था
दिलों की सब कुदूरत सामने थी