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ज़माने भर का जो फ़ित्ना रहा था | शाही शायरी
zamane bhar ka jo fitna raha tha

ग़ज़ल

ज़माने भर का जो फ़ित्ना रहा था

अनजुम अब्बासी

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ज़माने भर का जो फ़ित्ना रहा था
वही तो गाँव का मुखिया बना था

मिरी शोहरत के परचम उड़ रह थे
मगर मैं धूप में तन्हा खड़ा था

हज़ारों राज़ थे पोशीदा मुझ में
मैं अपने आप से छुप कर खड़ा था

बहुत से लोग उस को देखते थे
वो ऊँचे पेड़ पर बैठा हुआ था

पुराना था मदारी का तमाशा
मगर वो भीड़ थी रस्ता उड़ा था

फ़सादी थे मिरे ही घर में 'अंजुम'
मैं उन को शहर भर में ढूँढता था