EN اردو
ज़माना कुछ भी कहे तेरी आरज़ू कर लूँ | शाही शायरी
zamana kuchh bhi kahe teri aarzu kar lun

ग़ज़ल

ज़माना कुछ भी कहे तेरी आरज़ू कर लूँ

अरशद कमाल

;

ज़माना कुछ भी कहे तेरी आरज़ू कर लूँ
शब-ए-सियाह में सूरज की जुस्तुजू कर लूँ

मिरे ख़ुदा मुझे तौफ़ीक़ सर-कशी दीदे
ख़िज़ाँ है सामने कुछ ज़िक्र-ए-रंग-ओ-बो कर लूँ

अगर हो मुझ को मयस्सर कहीं से कोई किरन
तो शब-दरीदा है जो कुछ उसे रफ़ू कर लूँ

जो आँख खोल दूँ सुन कर ज़मीर की दस्तक
तू ख़ुद को अपनी नज़र में मैं सुर्ख़-रू कर लूँ

हुआ है कितने दिनों बा'द राब्ता क़ाएम
अब अपने आप से 'राशिद' मैं गुफ़्तुगू कर लूँ