ज़माना हेच है उस की निगाह में ऐ दोस्त
जो आ गया तिरे ग़म की पनाह में ऐ दोस्त
झलक रही है जो चश्म-ए-सियाह में ऐ दोस्त
वो मौज-ए-नूर कहाँ मेहर-ओ-माह में ऐ दोस्त
लहू जो सीना-ए-दहक़ाँ से बूँद बूँद गिरा
चमक रहा है वही ताज-ए-शाह में ऐ दोस्त
सनम-कदे में भी जिस शिर्क को अमाँ न मिली
फ़रोग़ पर है वही ख़ानक़ाह में ऐ दोस्त
सुकून-ए-दिल भी अजब चीज़ है कि उस के तुफ़ैल
जबीं पे नूर है हाल-ए-तबाह में ऐ दोस्त
न मुज्तहिद है न सूफ़ी मगर तिरा 'मंज़ूर'
अज़ीज़-तर है जहाँ की निगाह में ऐ दोस्त
ग़ज़ल
ज़माना हेच है उस की निगाह में ऐ दोस्त
मंज़ूर अहमद मंज़ूर