ज़माना बे-कराँ था, बे-कराँ हम ने नहीं रक्खा
तिरे ग़म से वरा कोई जहाँ हम ने नहीं रक्खा
हमेशा सामने आए मिसाल-ए-सुब्ह-ए-रख़्शंदा
कभी मद्धम उजालों का समाँ हम ने नहीं रक्खा
अता की इस की ज़ौ से बज़्म-ए-हर-इम्काँ को ताबानी
कभी दिल को चराग़-ए-नीम-जाँ हम ने नहीं रक्खा
रहे नश्शे में लेकिन इंतिहा-ए-ख़ाकसारी से
कि सर पर बे-ख़ुदी का आसमाँ हम ने नहीं रक्खा
हमारे आसमाँ का हर सितारा सब पे रौशन है
किसी ज़ख़्म-ए-मोहब्बत को निहाँ हम ने नहीं रक्खा
किया है ज़ब्त भी तो दर्द के तूफ़ाँ उठाए हैं
ख़मोशी को सुकूत-ए-ख़ूँ-चकाँ हम ने नहीं रक्खा
हमारा हर सुख़न सीधा उतरता है दिल-ओ-जाँ में
कोई भी ख़ंजर-ए-ग़म, ना-तवाँ हम ने नहीं रक्खा
ग़ज़ल
ज़माना बे-कराँ था, बे-कराँ हम ने नहीं रक्खा
मशकूर हुसैन याद