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ज़माँ मकाँ से भी कुछ मावरा बनाने में | शाही शायरी
zaman makan se bhi kuchh mawara banane mein

ग़ज़ल

ज़माँ मकाँ से भी कुछ मावरा बनाने में

सालिम सलीम

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ज़माँ मकाँ से भी कुछ मावरा बनाने में
मैं मुंहमिक हूँ बहुत ख़ुद को ला बनाने में

चराग़-ए-इश्क़ बदन से लगा था कुछ ऐसा
मैं बुझ के रह गया उस को हवा बनाने में

ये दिल कि सोहबत-ए-ख़ूबाँ में था ख़राब बहुत
सो उम्र लग गई इस को ज़रा बनाने में

घिरी है प्यास हमारी हुजूम-ए-आब में और
लगा है दश्त कोई रास्ता बनाने में

महक उठी है मिरे चार-सू ज़मीन-ए-हुनर
मैं कितना ख़ुश हूँ तुझे जा-ब-जा बनाने में