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ज़ख़्मों को मरहम कहता हूँ क़ातिल को मसीहा कहता हूँ | शाही शायरी
zaKHmon ko marham kahta hun qatil ko masiha kahta hun

ग़ज़ल

ज़ख़्मों को मरहम कहता हूँ क़ातिल को मसीहा कहता हूँ

क़ैसर-उल जाफ़री

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ज़ख़्मों को मरहम कहता हूँ क़ातिल को मसीहा कहता हूँ
जो दिल पर गुज़रा करती है मैं पर्दा पर्दा कहता हूँ

ज़ुल्फ़ों को घटाएँ कहता हूँ रुख़्सार को शो'ला कहता हूँ
तुम जितने अच्छे लगते हो मैं उस से अच्छा कहता हूँ

अब रीत यही है दुनिया की तुम भी न बनो बेगाना कहीं
इल्ज़ाम नहीं धरता तुम पर इक जी का धड़कना कहता हूँ

अरबाब-ए-चमन जो कहते हैं वो नाम मुझे मा'लूम नहीं
जिस शाख़ पे कोई फूल न हो मैं उस को तमन्ना कहता हूँ

'क़ैसर' वो नवा ला-हासिल है जो आ के लबों पर लहराए
छू ले जो दिलों की गहराई मैं उस को नग़्मा कहता हूँ