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ज़ख़्मों का दो-शाला पहना धूप को सर पर तान लिया | शाही शायरी
zaKHmon ka do-shaala pahna dhup ko sar par tan liya

ग़ज़ल

ज़ख़्मों का दो-शाला पहना धूप को सर पर तान लिया

ऐतबार साजिद

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ज़ख़्मों का दो-शाला पहना धूप को सर पर तान लिया
क्या क्या हम ने कष्ट कमाए कहाँ कहाँ निरवान लिया

नक़्श दिए तिरी आशाओं को अक्स दिए तिरे सपनों को
लेकिन देख हमारी हालत वक़्त ने क्या तावान लिया

अश्कों में हम गूँध चुके थे उस के लम्स की ख़ुशबू को
मोम के फूल बनाने बैठे लेकिन धूप ने आन लिया

बरसों ब'अद हमें देखा तो पहरों उस ने बात न की
कुछ तो गर्द-ए-सफ़र से भाँपा कुछ आँखों से जान लिया

आँख पे हात धरे फिरते थे लेकिन शहर के लोगों ने
उस की बातें छेड़ के हम को लहजे से पहचान लिया

सूरज सूरज खेल रहे थे 'साजिद' हम कल उस के साथ
इक इक क़ौस-ए-क़ुज़ह से गुज़रे इक इक बादल छान लिया