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ज़ख़्म शादाब देखते हैं मुझे | शाही शायरी
zaKHm shadab dekhte hain mujhe

ग़ज़ल

ज़ख़्म शादाब देखते हैं मुझे

डॉ. पिन्हाँ

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ज़ख़्म शादाब देखते हैं मुझे
दर्द बेताब देखते हैं मुझे

ख़्वाब देखे थे टूट कर मैं ने
टूट कर ख़्वाब देखते हैं मुझे

दाग़-ए-दिल ज़ौ-फ़िशाँ हुए यूँ कि
शम्स ओ महताब देखते हैं मुझे

खुल गया हो न दोस्ती का भरम
डर के अहबाब देखते हैं मुझे

इक तनाव सा अपने-आप से है
खिंच के आसाब देखते हैं मुझे

मुझ में शाएर तो और है 'पिंहाँ'
और अर्बाब देखते हैं मुझे