ज़ख़्म रिसने लगा है फिर शायद
याद उस ने किया है फिर शायद
सिसकियाँ गूँजती हैं कानों में
घर किसी का जला है फिर शायद
हासिल-ए-उम्र क्या यही कुछ है
ये अभी सोचना है फिर शायद
दर-ए-ज़िंदाँ पे फिर हुई दस्तक
कोई दर्द-आश्ना है फिर शायद
फिर परिंदे उड़े हैं शाख़ों से
इक धमाका हुआ है फिर शायद
मुस्कुराते हैं देख देख के लोग
इम्तिहान-ए-वफ़ा है फिर शायद
ग़ज़ल
ज़ख़्म रिसने लगा है फिर शायद
ख़ालिद शरीफ़