ज़ख़्म पुराने फूल सभी बासी हो जाएँगे
दर्द के सब क़िस्से याद-ए-माज़ी हो जाएँगे
साँसें लेती तस्वीरों को चुप लग जाएगी
सारे नक़्श करिश्मों से आरी हो जाएँगे
आँखों से मस्ती न लबों से अमृत टपकेगा
शीशा-ओ-जाम शराबों से ख़ाली हो जाएँगे
खुली छतों से चाँदनी रातें कतरा जाएँगी
कुछ हम भी तन्हाई के आदी हो जाएँगे
कूचा-ए-जाँ पर गहरे बादल छाए रहेंगे 'ज़ेब'
उस की खिड़की के पर्दे भारी हो जाएँगे
ग़ज़ल
ज़ख़्म पुराने फूल सभी बासी हो जाएँगे
ज़ेब ग़ौरी