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ज़ख़्म कुछ ऐसे मिरे क़ल्ब-ओ-जिगर ने पाए | शाही शायरी
zaKHm kuchh aise mere qalb-o-jigar ne pae

ग़ज़ल

ज़ख़्म कुछ ऐसे मिरे क़ल्ब-ओ-जिगर ने पाए

रज़ा हमदानी

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ज़ख़्म कुछ ऐसे मिरे क़ल्ब-ओ-जिगर ने पाए
उम्र भर जो किसी उनवान न भरने पाए

हम ने अश्कों के चराग़ों से सजा लीं पलकें
कि तिरे दर्द की बारात गुज़रने पाए

उस से क्या पूछते हो फ़लसफ़ा-ए-मौत-ओ-हयात
कि जो ज़िंदा भी रहे और न मरने पाए

इस लिए कम-नज़री का भी सितम सहना पड़ा
तुझ पे महफ़िल में कोई नाम न धरने पाए

पास-ए-आदाब-ए-वफ़ा था कि शिकस्ता-पाई
बे-ख़ुदी में भी न हम हद से गुज़रने पाए

अपने जज़्बात के बिफरे हुए तूफ़ाँ में 'रज़ा'
इस तरह डूबे कि फिर हम न उभरने पाए