ज़ख़्म खाते हैं जी जलाते हैं
हम कहाँ ऐसे बाज़ आते हैं
ज़िंदगी रोज़ घटती जाती है
मसअले रोज़ बढ़ते जाते हैं
अब कहाँ भूत और बलाएँ रहीं
आदमी आदमी को खाते हैं
एक वो हम से दूर रह के भी ख़ुश
एक हम अपना दिल जलाते हैं
ख़ाक से ख़ाक भी नहीं मिलती
रोज़ हम ख़ाक छान आते हैं
मौसम-ए-ना-रसाई आया है
सब्र की फ़स्ल अब उगाते हैं
ग़ज़ल
ज़ख़्म खाते हैं जी जलाते हैं
वक़ार ख़ान