ज़ख़्म खाने से या कोई धोका खाने से हुआ
बात क्या थी मैं ख़फ़ा जिस पर ज़माने से हुआ
एक पल में इक जगह से इतना रौशन आसमाँ
कोई तारा बनते बनते टूट जाने से हुआ
सोचता रहता हूँ मैं अक्सर कि आग़ाज़-ए-जहाँ
दिन बनाने से कि पहले शब बनाने से हुआ
मैं ग़लत या तुम ग़लत थे छोड़ो अब इस बात को
होना था जो कुछ वो जैसे इक बहाने से हुआ
कुछ ज़माने की रविश ने सख़्त मुझ को कर दिया
और कुछ बेदर्द मैं उस को भुलाने से हुआ
बात सारी अस्ल में ये थी मैं उस से बद-गुमाँ
इक तअल्लुक़ में कहीं पे शक के आने से हुआ
बच ही निकला हूँ मैं जाड़े की बड़ी यलग़ार से
गर्म अब के घर बदन का ख़स जलाने से हुआ
क्या कहूँ मेरी गिरफ़्तारी का कोई एहतिमाम
कैसे ज़ेर-ए-दाम रक्खे एक दाने से हुआ
उम्र भर का ये जो है 'शाहीं' ख़सारा ये मुझे
एक सौदे में कोई नेकी कमाने से हुआ
ग़ज़ल
ज़ख़्म खाने से या कोई धोका खाने से हुआ
जावेद शाहीन