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ज़ख़्म-ए-उल्फ़त अयाँ नहीं होता | शाही शायरी
zaKHm-e-ulfat ayan nahin hota

ग़ज़ल

ज़ख़्म-ए-उल्फ़त अयाँ नहीं होता

नज़ीर रामपुरी

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ज़ख़्म-ए-उल्फ़त अयाँ नहीं होता
आँख से ख़ूँ रवाँ नहीं होता

हुस्न को सिर्फ़ वहम है वर्ना
इश्क़ तो बद-गुमाँ नहीं होता

कोई मंज़िल भला क़दम चूमे
अज़्म जब तक जवाँ नहीं होता

देखिए तो नक़ाब उलट के ज़रा
चाँद कब तक अयाँ नहीं होता

देख कर ग़म-ज़दा से कुछ चेहरे
दर्द-ए-दिल क्यूँ अयाँ नहीं होता

कोह-ओ-सहरा हो दश्त-ए-ऐमन हो
गुज़र अपना कहाँ नहीं होता

फूल कैसे वहाँ न ख़ार लगें
ज़िक्र तेरा जहाँ नहीं होता

मैं तो क्या दिल भी मेरा उस का है
जो कभी मेहरबाँ नहीं होता

ज़ोर-ए-तूफ़ाँ है दूर साहिल है
नाख़ुदा मेहरबाँ नहीं होता

राज़-दाँ किस को किस तरह समझूँ
राज़-ए-दिल तो बयाँ नहीं होता

शेरियत शे'र में हो कैसे 'नज़ीर'
ज़ेहन जब तक रवाँ नहीं होता