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ज़ख़्म-ए-ताज़ा बर्ग-ए-गुल में मुंतक़िल होते गए | शाही शायरी
zaKHm-e-taza barg-e-gul mein muntaqil hote gae

ग़ज़ल

ज़ख़्म-ए-ताज़ा बर्ग-ए-गुल में मुंतक़िल होते गए

ज़हीर सिद्दीक़ी

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ज़ख़्म-ए-ताज़ा बर्ग-ए-गुल में मुंतक़िल होते गए
पंजा-ए-सफ़्फ़ाक में ख़ंजर ख़जिल होते गए

दीद के क़ाबिल था उन सहरा-नवर्दों का जुनूँ
मंज़िलें मिलती गईं हम मुज़्महिल होते गए

नूर का रिश्ता सवाद-ए-जिस्म से कटता गया
हम भी आख़िर बाद ओ आतिश आब-ओ-गिल होते गए

ख़ून में ऊँचे चनारों के न हिद्दत आ सकी
यूँ ब-ज़ाहिर सब्ज़ पत्ते मुश्तइल होते गए

दिल के दफ़्तर में था जज़्बों का तक़र्रुर आरज़ी
हाँ जो उन में मो'तबर थे मुस्तक़िल होते गए

जैसे जैसे आगही बढ़ती गई वैसे 'ज़हीर'
ज़ेहन ओ दिल इक दूसरे से मुंफ़सिल होते गए