ज़ख़्म-ए-दिल और हरा ख़ून-ए-तमन्ना से हुआ
तिश्नगी का मिरी आग़ाज़ ही दरिया से हुआ
चुभ गई हल्क़ में काँटों की तरह प्यास मिरी
दश्त सैराब मिरे आबला-ए-पा से हुआ
दिल-ए-ज़िंदा को चुना दर्द की दीवारों में
रोक लेती मुझे इतना भी न दुनिया से हुआ
सर में सौदा था मगर पाँव में ज़ंजीर न थी
ख़ाक उड़ाता रहा मंसूब न सहरा से हुआ
फेर दीं किस ने सलाख़ें सी मिरी आँखों में
कौन अंगुश्त-नुमा ताक़-ए-तमाशा से हुआ
दूर जा कर मिरी आवाज़ सुनी दुनिया ने
फ़न उजागर मिरा आईना-ए-फ़र्दा से हुआ
बू मिज़ाजों से गई रंग उड़े चेहरों के
ख़ुश यहाँ कौन मिरे दीदा-ए-बीना से हुआ
अजनबी सा नज़र आया हूँ 'मुज़फ़्फ़र' ख़ुद को
बे-तकल्लुफ़ जो मैं इस अहद-ए-शनासा से हुआ
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ग़ज़ल
ज़ख़्म-ए-दिल और हरा ख़ून-ए-तमन्ना से हुआ
मुज़फ़्फ़र वारसी