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ज़हर में बुझती हुई बेल है दीवार के साथ | शाही शायरी
zahr mein bujhti hui bel hai diwar ke sath

ग़ज़ल

ज़हर में बुझती हुई बेल है दीवार के साथ

उम्मीद ख़्वाजा

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ज़हर में बुझती हुई बेल है दीवार के साथ
जैसे इक नाइका बैठी हो गुनहगार के साथ

मुझ से मिलना है तो ये क़ैद नहीं मुझ को पसंद
हर मुलाक़ात मुक़य्यद रहे इतवार के साथ

एक ही वार में मरने से कहीं बेहतर है
एक इक सर वो जो कटता रहे तलवार के साथ

मैं ने हर-गाम पे उन लोगों को मरते देखा
वो जो जीते रहे इस दौर में किरदार के साथ

ये जहाँ मुफ़लिस-ओ-नादार का हमदर्द हो क्यूँ
जिस के हर कोने पे तहरीर है ज़रदार के साथ

कोई शाइ'र मिरे मरने की ख़बर लाया है
एक सह-कालमी सुर्ख़ी लिए अख़बार के साथ

जश्न‌‌‌‌-ए-ख़ूँ-नाब है मक़्तल में मुग़न्नी से कहो
कोई इक राग नया गीत हो मल्हार के साथ

मैं भी इस शहर-ए-ख़मोशाँ का ही साकिन हूँ 'उमीद'
जिस की हर लौह पे तहरीर है आज़ार के साथ