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ज़हर को मय दिल-ए-सद-पारा को मीना न कहो | शाही शायरी
zahr ko mai dil-e-sad-para ko mina na kaho

ग़ज़ल

ज़हर को मय दिल-ए-सद-पारा को मीना न कहो

शमीम करहानी

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ज़हर को मय दिल-ए-सद-पारा को मीना न कहो
दौर ऐसा है कि पीने को भी पीना न कहो

न बताओ कि तबस्सुम भी है इक ज़ख़्म का नाम
चाक है किस लिए इंसान का सीना न कहो

कम-निगाहों का है फ़रमान कि ऐ दीदा-वरो
किस लिए तुम को मिला दीदा-ए-बीना न कहो

रख दो इल्ज़ाम किसी मौजा-ए-मासूम के सर
ना-ख़ुदाओं ने डुबोया है सफ़ीना न कहो

हर नफ़स मौत की बख़्शी हुई मोहलत जैसे
कोई जीना है ये जीना इसे जीना न कहो

ये तो फ़नकार की मेहनत का सिला है यारो
मेरे माथे के पसीने को पसीना न कहो

संग-रेज़ों को कहीं ठेस न लग जाए 'शमीम'
मस्लहत है कि नगीने को नगीना न कहो