ज़हर के घूँट पी रहे हैं हम
तेरी नज़रों में जी रहे हैं हम
ख़ूब है सोज़न-ए-मिज़ा भी तिरी
दिल के ज़ख़्मों को सी रहे हैं हम
घर तो घर सर दिए हैं ग़ुर्बत में
दश्त में भी सख़ी रहे हैं हम
शोख़ हों मय-कदे हों महफ़िलें हों
हर जगह मुत्तक़ी रहे हैं हम
तेरे कूचे की गुफ़्तुगू है फ़ुज़ूल
तेरे तो दिल में भी रहे हैं हम
पेश-ए-ख़िदमत हैं कौसर-ओ-तसनीम
कुश्ता-ए-तिश्नगी रहे हैं हम
दे दिए रोटियों समेत शुतुर
मुफ़्लिसी में ग़नी रहे हैं हम
नफ़्स के शर से 'हिल्म' बच के रहो
मुद्दतों से दुखी रहे हैं हम
ग़ज़ल
ज़हर के घूँट पी रहे हैं हम
वक़ार हिल्म सय्यद नगलवी