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ज़हर लगता है ये आदत के मुताबिक़ मुझ को | शाही शायरी
zahar lagta hai ye aadat ke mutabiq mujhko

ग़ज़ल

ज़हर लगता है ये आदत के मुताबिक़ मुझ को

अंजुम बाराबंकवी

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ज़हर लगता है ये आदत के मुताबिक़ मुझ को
कुछ मुनाफ़िक़ भी बताते हैं मुनाफ़िक़ मुझ को

दिन चढ़े धूप की बातें नहीं सुनता कोई
चाँदनी-रात पुकारे तिरा आशिक़ मुझ को

कश्तियाँ रेशमी ख़्वाबों की जला कर जाना
किस की चाहत ने बना रक्खा है 'तारिक़' मुझ को

आप के नाम पे मैं हद में रहा हूँ लेकिन
आप के नाम पे दुनिया ने किया दिक़ मुझ को

मैं ने सूरज की तरह ख़ुद को बनाया जिस दिन
देखने आएँगे ये मग़रिब-ओ-मशरिक़ मुझ को

आप कहते तो ज़रा दिल को तसल्ली होती
कहने वालों ने कहा आशिक़-ए-सादिक़ मुझ को