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ज़ब्त से ना-आश्ना हम सब्र से बेगाना हम | शाही शायरी
zabt se na-ashna hum sabr se begana hum

ग़ज़ल

ज़ब्त से ना-आश्ना हम सब्र से बेगाना हम

सीमाब अकबराबादी

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ज़ब्त से ना-आश्ना हम सब्र से बेगाना हम
क्यूँ किसी से माँगते जाएँ चराग़-ए-ख़ाना हम

ख़ुद ही साज़-ए-बे-ख़ुदी को छेड़ देते हैं कभी
ख़ुद ही सुनते हैं हदीस-ए-साग़र-ओ-पैमाना हम

दफ़अतन साज़-ए-दो-आलम बे-सदा हो जाएगा
कहते कहते रुक गए जिस दिन तिरा अफ़्साना हम

शम्-ए-ऐवान-ए-हरम हो या चराग़-ए-ताक़-ए-दैर
हम को दोनों से तअल्लुक़ है कि हैं परवाना हम

दिल जला फिर ख़ुद जले फिर सारी दुनिया जल उठी
सोज़ लाए थे ब-मिकदार-ए-पर-परवाना हम

जब हमें दीवाना बनना है तो कैसी मस्लहत
मस्लहत को भी बना लेंगे तिरा दीवाना हम

बस-कि है 'सीमाब' बे-मेहरी यगानों का शिआर
हैं रहीन-ए-इल्तिफ़ात-ए-ख़ातिर-ए-बेगाना हम