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ज़बाँ पे आह न सीने पे दाग़ लाया मैं | शाही शायरी
zaban pe aah na sine pe dagh laya main

ग़ज़ल

ज़बाँ पे आह न सीने पे दाग़ लाया मैं

कालीदास गुप्ता रज़ा

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ज़बाँ पे आह न सीने पे दाग़ लाया मैं
तुम्हारी बज़्म से क्या ना-मुराद आया मैं

सुराग़-ए-मेहर-ओ-मोहब्बत का ढूँडियो न कहीं
कि उन की राख हवा में बिखेर आया मैं

ज़मीं की शम्ओं से जब दिल को रौशनी न मिली
फ़लक से चाँद सितारे उतार लाया मैं

ख़याल ओ फ़िक्र की आवारगी अरे तौबा
निकल गया जो कहीं हाथ ही न आया मैं

हज़ार क़ाफ़िले मर्ग ओ हयात के गुज़रे
न दर्द ने कभी थामा न मुस्कुराया मैं

शबाब पर था चमन इंतिख़ाब-ए-गुल कैसा
तमाम फूल नज़र में समेट लाया मैं

कोई सफ़र सा सफ़र था कोई थी बाट सी बाट
रह-ए-हयात पे दो-गाम चल न पाया मैं

बजाए नाला रज़ा बार-हा हुआ ऐसा
ग़मों की शोरिश-ए-पैहम पे मुस्कुराया मैं