ज़बाँ कुछ और कहती है नज़र कुछ और कहती है 
ब-ज़ाहिर ये तवज्जोह चारा-गर कुछ और कहती है 
ज़माना नग़्मा-पैराई का जब आएगा आएगा 
अभी तो शिद्दत-ए-सोज़-ए-जिगर कुछ और कहती है 
भला आप और इख़फ़ा-ए-हक़ीक़त ऐ मआ'ज़-अल्लाह 
ज़बान-ए-ख़ल्क़ झूटी है अगर कुछ और कहती है 
कोई किस तरह धोका खाए इस आतिश-बयानी का 
उदासी तेरी ऐ शम-ए-सहर कुछ और कहती है 
इसी तश्ख़ीस पर इतरा रहा था एक मुद्दत से 
मसीहा देख नब्ज़-ए-बहर-ओ-बर कुछ और कहती है 
तिरी अज़्मत का मुंकिर था न हूँ ऐ रहबर-ए-कामिल 
अब इस को क्या करूँ मैं रहगुज़र कुछ और कहती है 
भरम 'याक़ूब' खुलने ही को है अब आसमानों का 
ज़मीं से गर्दिश-ए-श्म्स-ओ-क़मर कुछ और कहती है
        ग़ज़ल
ज़बाँ कुछ और कहती है नज़र कुछ और कहती है
याक़ूब उस्मानी

