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ज़बाँ को ज़ाइका-ए-शेर-ए-तर नहीं मिलता | शाही शायरी
zaban ko zaiqa-e-sher-e-tar nahin milta

ग़ज़ल

ज़बाँ को ज़ाइका-ए-शेर-ए-तर नहीं मिलता

सज्जाद बाक़र रिज़वी

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ज़बाँ को ज़ाइका-ए-शेर-ए-तर नहीं मिलता
बढ़ा है ज़ोर ज़बाँ में असर नहीं मिलता

ख़ुद अपने हाल की कोई ख़बर नहीं मिलती
कोई भी जज़्बा-ए-दिल-ए-मो'तबर नहीं मिलता

सभी हैं खोई हुई मंज़िलों की गर्द में गुम
सफ़र बहुत है मआल-ए-सफ़र नहीं मिलता

जो दश्त में थे वो बेगाना-ए-ख़लाइक़ थे
जो शहर में थे उन्हें अपना घर नहीं मिलता

अजीब तौर हैं अब कार-गाह दुनिया के
ग़ुरूर-ए-इश्क़ जवाज़-ए-हुनर नहीं मिलता

बयान-ए-शौक़-ए-सफ़र अहल-ए-दर्द का है बहुत
मगर निशान सर-ए-रहगुज़र नहीं मिलता

फ़राग़-ए-दिल नहीं अब कू-ए-गुल-ए-रुख़ाँ में कहीं
कि ज़ख़्म कोई यहाँ कारगर नहीं मिलता

दयार-ए-शौक़ में या कूचा-ए-मलामत में
कहीं भी 'बाक़र'-ए-आशुफ़्ता-सर नहीं मिलता