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ज़बाँ को हुक्म ही कहाँ कि दास्तान-ए-ग़म कहें | शाही शायरी
zaban ko hukm hi kahan ki dastan-e-gham kahen

ग़ज़ल

ज़बाँ को हुक्म ही कहाँ कि दास्तान-ए-ग़म कहें

शमीम करहानी

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ज़बाँ को हुक्म ही कहाँ कि दास्तान-ए-ग़म कहें
अदा अदा से तुम कहो नज़र नज़र से हम कहें

जो तुम ख़ुदा ख़ुदा कहो तो हम सनम सनम कहें
कि एक ही सी बात है वो तुम कहो कि हम कहें

मिले हैं तिश्ना मय-कशों को चंद जाम इस लिए
कहें न हाल-ए-तिश्नगी कहें तो कम से कम कहें

सितमगरान-ए-सादा-दिल ये बात जानते नहीं
कि वो सितम-ज़रीफ़ हैं सितम को जो करम कहें

सुबू हो मेरे हाथ में तो कासा-ए-गदागरी
जो तुम उठा लो जाम तो लोग जाम-ए-जम कहें

'शमीम' वो न साथ दें तो मुझ से तय न हो सकें
ये ज़िंदगी के रास्ते कि ज़ुल्फ़-ए-ख़म-ब-ख़म कहें