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ज़बाँ है मगर बे-ज़बानों में है | शाही शायरी
zaban hai magar be-zabanon mein hai

ग़ज़ल

ज़बाँ है मगर बे-ज़बानों में है

अमीर क़ज़लबाश

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ज़बाँ है मगर बे-ज़बानों में है
नसीहत कोई उस के कानों में है

चलो साहिलों की तरफ़ रुख़ करें
अभी तो हवा बादबानों में है

ज़मीं पर हो अपनी हिफ़ाज़त करो
ख़ुदा तो मियाँ आसमानों में है

न जाने ये एहसास क्यूँ है मुझे
वो अब तक मिरे पासबानों में है

सजा तो लिए हम ने दीवार-ओ-दर
उदासी अभी तक मकानों में है

हवा रुख़ बदलती रहे भी तो क्या
परिंदा तो अपनी उड़ानों में है