ज़ात में कर्ब हो और कर्ब का इज़हार न हो
सोचता हूँ कहीं मेरा यही किरदार न हो
मेरे आँगन में खिली धूप का असरार है क्या
उठ के देखूँ तो सही वो पस-ए-दीवार न हो
जी में आती है कि अब ऐसे सफ़र पर निकलें
ऊँट हम-राह न हो जेब में दीनार न हो
कश्तियाँ किस लिए साहिल से बंधी रहती हैं
हो न हो नीले समुंदर में कोई ग़ार न हो
ग़ज़ल
ज़ात में कर्ब हो और कर्ब का इज़हार न हो
प्रेम कुमार नज़र