ज़ाइक़े पैदा तबीअ'त में लचक करते हैं
आ तुझे वाक़िफ़-ए-क़ंद और नमक करते हैं
आओ चलते हैं जहाँ साज़िश-ए-अहबाब न हो
दुश्मनी का ये सफ़र दोस्ती तक करते हैं
वो जो इंसान के ही बस में है उस पर इंसाँ
जाने किस मुँह से शिकायात-ए-फ़लक करते हैं
खुलने ही वाला है बस अंधी अक़ीदत का भरम
हम से कुछ लोग बहुत छान-फटक करते हैं
शिर्क तो ख़्वाब में भी हम से नहीं हो सकता
हम तो या-रब तिरी क़ुदरत पे भी शक करते हैं
ग़ज़ल
ज़ाइक़े पैदा तबीअ'त में लचक करते हैं
मन्नान बिजनोरी