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ज़ाहिर मिरी शिकस्त के आसार भी नहीं | शाही शायरी
zahir meri shikast ke aasar bhi nahin

ग़ज़ल

ज़ाहिर मिरी शिकस्त के आसार भी नहीं

बशीर सैफ़ी

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ज़ाहिर मिरी शिकस्त के आसार भी नहीं
मुझ को यक़ीन फ़त्ह का इस बार भी नहीं

क़ैद-ए-मकाँ से देखिए कब तक रिहाई हो
अब तक तो बद-गुमाँ दर-ओ-दीवार भी नहीं

किस सेहर की गिरफ़्त में आए हुए हैं हम
आँखें भी हैं खुली हुई बेदार भी नहीं

जो कुछ कि दिल में हो भरी महफ़िल में कह सके
हर शख़्स में ये जुरअत-ए-इज़हार भी नहीं

क्या अस्ल काएनात को 'सैफ़ी' समझ सकूँ
मुझ पर अयाँ तो ज़ात के असरार भी नहीं