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ज़ाए नहीं होती कभी तदबीर किसी की | शाही शायरी
zae nahin hoti kabhi tadbir kisi ki

ग़ज़ल

ज़ाए नहीं होती कभी तदबीर किसी की

निज़ाम रामपुरी

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ज़ाए नहीं होती कभी तदबीर किसी की
मेरी सी ख़ुदाया न हो तक़दीर किसी की

नाहक़ में बिगड़ जाने की आदत ये ग़ज़ब है
साबित तो क्या कीजिए तक़्सीर किसी की

क़ासिद ये ज़बानी तिरी बातें तो सुनी हैं
तब जानूँ कि ला दे मुझे तहरीर किसी की

बे-साख़्ता पहरों ही कहा करते हैं क्या क्या
हम होते हैं और होती है तस्वीर किसी की

ऐसी तो 'निज़ाम' उन की न आदत थी वफ़ा की
वो जाने न जाने ये है तासीर किसी की