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ज़-बस-कि मश्क़-ए-तमाशा जुनूँ-अलामत है | शाही शायरी
z-bas-ki mashq-e-tamasha junun-alamat hai

ग़ज़ल

ज़-बस-कि मश्क़-ए-तमाशा जुनूँ-अलामत है

मिर्ज़ा ग़ालिब

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ज़-बस-कि मश्क़-ए-तमाशा जुनूँ-अलामत है
कुशाद-ओ-बस्त-ए-मिज़्हा सीली-ए-नदामत है

न जानूँ क्यूँकि मिटे दाग़-ए-तान-ए-बद-अहदी
तुझे कि आइना भी वर्ता-ए-मलामत है

ब-पेच-ओ-ताब-ए-हवस सिल्क-ए-आफ़ियत मत तोड़
निगाह-ए-अज्ज़ सर-ए-रिश्ता-ए-सलामत है

वफ़ा मुक़ाबिल-ओ-दावा-ए-इश्क़ बे-बुनियाद
जुनूँ-ए-साख़्ता ओ फ़स्ल-ए-गुल क़यामत है