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यूसुफ़-ए-हुस्न का हुस्न आप ख़रीदार रहा | शाही शायरी
yusuf-e-husn ka husn aap KHaridar raha

ग़ज़ल

यूसुफ़-ए-हुस्न का हुस्न आप ख़रीदार रहा

अनवर देहलवी

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यूसुफ़-ए-हुस्न का हुस्न आप ख़रीदार रहा
पहले बाज़ार-ए-अज़ल मिस्र का बाज़ार रहा

बिस्मिल-ए-नाज़ रहा कुश्ता-ए-रफ़्तार रहा
ज़िंदगी भर मुझे मरने से सरोकार रहा

जुर्म-ए-ना-कर्दा उक़ूबत का सज़ा-वार रहा
शैख़ सरशार-ए-सियह मस्ती-ए-पिंदार रहा

पर्दा-ए-चश्म जो पास-ए-अदब-ए-यार रहा
मैं रहा सामने तू भी पस-ए-दीवार रहा

दिल ये शादी-ए-जराहत से हुआ बालीदा
कि तिरा तीर यहाँ ता-लब-ए-सूफ़ार रहा

गिर के नज़रों से तिरी फिर न ज़मीं से उट्ठा
मैं सुबुक भी जो हुआ तू भी गिराँ-बार रहा

आज ही आज है फ़र्दा-ए-क़यामत मौजूद
दो घड़ी और जो हंगामा-ए-रफ़्तार रहा

तूर तू बर्क़-ए-तजल्ली से हुआ ख़ाकिस्तर
और मैं सोख़्ता-ए-हसरत-ए-दीदार रहा

रहम उस सादा-दिली पर कि मिरा ज़ख़्म-ए-जिगर
ग़ैर से चारा-ओ-दरमाँ का तलबगार रहा

मैं वो इक मुजरिम-ए-ताज़ीर तलब हूँ कि सदा
बदले दुश्मन के उक़ूबत का सज़ा-वार रहा

बस-कि दिल में रही इक कश्मकश यास-ओ-उम्मीद
दर्द जो दिल में रहा जान से बेज़ार रहा

अब वो फ़र्दा भी नहीं रोज़ की तस्कीं के लिए
अब फ़क़त हश्र ही पर वा'दा-ए-दीदार रहा

पी भी जा शैख़ कि साक़ी की इनायत है शराब
मैं तिरे बदले क़यामत में गुनहगार रहा

ख़ुश हूँ चुप रहने से उन के दम-ए-पैग़ाम-ए-विसाल
कि ये इंकार तो कुछ शामिल-ए-इक़रार रहा

सर पे फिरता ही रहा और न गिरा मुझ पे कभी
आसमाँ बन के तिरा साया-ए-दीवार रहा

गरचे क्या कुछ थे मगर आप को कुछ भी न गिना
इश्क़-ए-बरहम ज़न-ए-काशाना-ए-पिंदार रहा

तुम ने यूँ घर में तो क्या कुछ न उठाए फ़ित्ने
इक क़यामत का उठाना सर-ए-बाज़ार रहा

हाए वो चश्म कि देखे तुझे सरगर्म-ए-अदा
वाए वो दिल कि तिरा महरम-ए-असरार रहा

मैं रहा भी तो रहा ख़ार की सूरत कि सदा
तेरी नज़रों में सुबुक-दिल पे तिरे यार रहा

चश्म पर नश्शा-ए-साक़ी जो रही अक्स-फ़गन
चूर मस्ती से हर इक साग़र-ए-सरशार रहा

हूँ में वो जिंस कि हूँ रौनक़-ए-बाज़ार-ए-कसाद
हूँ वो सौदा कि ख़रीदार भी बेज़ार रहा

कुछ ख़बर होती तो मैं अपनी ख़बर क्यूँ रखता
ये भी इक बे-ख़बरी थी कि ख़बर-दार रहा

थक के बैठे हो दर-ए-सौम'अ पर क्या 'अनवर'
दो-क़दम और कि ये ख़ाना-ए-ख़ु़म्मार रहा