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यूँही कटे न रहगुज़र-ए-मुख़्तसर कहीं | शाही शायरी
yunhi kaTe na rahguzar-e-muKHtasar kahin

ग़ज़ल

यूँही कटे न रहगुज़र-ए-मुख़्तसर कहीं

अज़ीज़ तमन्नाई

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यूँही कटे न रहगुज़र-ए-मुख़्तसर कहीं
पड़ते हैं पाए शौक़ कहीं और नज़र कहीं

मौहूम-ओ-मुख़्तसर सही पेश-ए-नज़र तो है
देखा किसी ने ख़्वाब ये बार-ए-दिगर कहीं

माइल-ब-जुस्तुजू हैं अभी अहल-ए-इश्तियाक़
दुनियाएँ और भी हैं वरा-ए-नज़र कहीं

बाक़ी अभी क़फ़स में है अहल-ए-क़फ़स की याद
बिखरे पड़े हैं बाल कहीं और पर कहीं

अब हम हैं और तिलिस्म-ए-तमन्ना की वुसअ'तें
ढूँडे से भी न मिल सकी राह-ए-मफ़र कहीं

हर फ़ासला है जल्वा-गह-ए-मौज-ए-इत्तिसाल
या'नी जबीन-ए-शौक़ कहीं संग-ए-दर कहीं

सदियों का इज़्तिराब 'तमन्नाई' सौंप दूँ
मिल जाए कोई लम्हा-ए-फ़ुर्सत अगर कहीं